गीता पुरुषार्थ की पक्षधर, पलायन की नहीं – शंकराचार्य

इंदौर, । गीता के संदेश हमें कर्मयोगी बनाने की ओर प्रवृत्त करते हैं। समाज और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह हम कब, क्यों और कैसे करें… इसका मंत्र गीता में ही मिलेगा। गीता उस खजाने की तरह है, जिसमें जीवन को सदगुणों से अलंकृत करने के अनेक अनमोल रत्न भरे पड़े हैं। गीता कर्तव्य के बोध और जीवन को सकारात्मक ढंग से जीने का संदेश देती है। गीता पुरुषार्थ की पक्षधर है, पलायनवाद का समर्थन कतई नहीं करती। सृष्टि में सबकुछ परमात्मा की कृपा से ही संभव है। जीव, जगत और जगदीश्वर- तीनों ही रूपों में भगवान का अस्तित्व मौजूद है।
जगदगुरू शंकराचार्य, पुरी पीठाधीश्वर स्वामी निश्चलानंद सरस्वती महाराज के, जो उन्होंने आज शाम गीता भवन में चल रहे 65वें अ.भा. गीता जयंती महोत्सव की धर्मसभा में व्यक्त किए। प्रारंभ में ट्रस्ट मंडल की ओर से वैदिक मंगलाचरण के बीच ट्रस्ट के अध्यक्ष राम ऐरन, मंत्री रामविलास राठी, कोषाध्यक्ष मनोहर बाहेती, न्यासी मंडल के प्रेमचंद गोयल, दिनेश मित्तल, महेशचंद्र शास्त्री, सत्संग समिति के जे.पी. फड़िया, रामकिशोर राठी, कैलाश खंडेलवाल आदि ने शंकराचार्यजी का स्वागत किया। इसके पूर्व सत्संग सभा में डाकोर से आए स्वामी देवकीनंदनदास, पानीपत से आई साध्वी ब्रह्मज्योति, उदयपुर से आए रामस्नेही संत चेतनराम, गोवर्धननाथ मंदिर उदयपुर–इंदौर के वैष्णवाचार्य युवराज गोस्वामी वागधीश बाबा, गोधरा से आई साध्वी परमानंदा सरस्वती, उज्जैन से आए जीवन प्रबंधन गुरू पं.विजय शंकर मेहता ने भी अपने ओजस्वी एवं प्रभावी विचार व्यक्त किए।
जीवन प्रबंधन गुरू पं. विजयशंकर मेहता ने अपने प्रभावी उदबोधन में कहा कि जीवन के संग्राम में विजयी वही होगा, जो स्वधर्म पर टिका रहेगा। आज के दौर में चारों ओर वासनाओं की आंधी चल रही है। इससे बचना सबसे बड़ी चुनौती है। भगवान कृष्ण ने स्थितप्रज्ञ, ज्ञान योग के साथ कर्म योग की बात भी कही है। उन्होंने अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण भी बताए हैं। हम जो कुछ भी हैं, वही हमारा स्वधर्म है। यदि हम माता-पिता, भाई-बहन, बहू-बेटी आदि हैं तो यही हमारा स्वधर्म है। सारे धर्मों में स्वधर्म को श्रेष्ठ माना गया है। आज हमारे युवा थोड़ी सी सफलता के उन्माद में डूब जाते हैं, लेकिन थोड़ी सी असफलता मिलने पर आत्महत्या करने पर उतारू हो जाते हैं। गीता के तीसरे अध्याय में कहा गया है कि बिना कर्म के किए कोई रह नहीं सकता। आलस्य भी कर्म ही है। हमें अपने बच्चों को कर्मयोग के बारे में बताना चाहिए। हम सबके जीवन में कहीं न कहीं मन, वचन और कर्म में भेद को लेकर पाप हो जाता है। काम अर्थात वासना मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। बच्चों को समझाना होगा कि शरीर की मृत्यु होती है आत्मा की नहीं। भय और भ्रम व्यक्ति को लक्ष्य से विमुख कर देते हैं। हम सार्वजनिक रूप से कुलीन और सभ्य दिखने का प्रयास करते हैं, लेकिन अकेले में जब वासना का थपेड़ा पड़ता है तो हमारा स्वधर्म बिखर जाता है। वासना की आंधी से बचना है तो अपने अंदर की काम वासना और भोग विलास को मारने पड़ेगा। हमारा युवा शरीर पर टिका हुआ है। शरीर पर टिके होने के करण ही लव जिहाद जैसे मामले सामने आ रहे हैं। 100 में से 80 मामले लिव इन के होते हैं। भारत की संस्कृति अग्नि की साक्षी में सात फेरे लेकर सात वचन के साथ विवाह करने की है। लिव इन जैसी कोई विकृति हमारी संस्कृति में है ही नहीं। विवाह के समय लिए गए सात वचन के संकल्प माता-पिता को ही याद नहीं है, तो बच्चों से क्या उम्मीद करें। देह पर टिके रहेंगे तो विवाह भी भोग ही है। आत्मा पर निर्भरता ही हमें वासना की आंधी से बचा सकती है। प्रतिदिन पांच-दस मिनट आत्मा के बारे में भी चिंतन करना चाहिए। हमारा योग और प्राणायाम छूट गया है। प्रतिदिन हम विचार शून्य होकर योग और प्राणायाम करेंगे तो अंदर जाने वाली सांस आत्मा से साक्षात्कार जरूर करेगी।