नानीबाई के मायरे की कथा भगवान की करुणा, दया और स्नेह के भाव की प्रतीक
इंदौर, । जिनके जीवन में बाल्यकाल से ही श्रद्धा, भक्ति और निष्ठा जागृत हो जाती है, उनके लिए आगे का जीवन सार्थक बन जाता है। भक्ति बलवती होगी तो कलियुग में भी भगवान अवतार ले सकते हैं। भक्त नृसिंह का प्रसंग सन 1470 का है। उनकी भक्ति इतनी बलवती है कि हम आज 550 वर्ष बाद भी उनकी भक्ति को याद करते है। नानीबाई के मायरे की कथा भारतीय समाज के परिवार पर भगवान की करुणा, दया और स्नेह के भाव को अभिव्यक्त करने की कथा है।
श्रीधाम वृंदावन के आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी भास्करानंद के सानिध्य में साध्वी कृष्णानंद ने आज गीता भवन में नानीबाई के मायरे की कथा के तीन दिवसीय आयोजन के शुभारंभ सत्र में उक्त दिव्य बातें कहीं। प्रारंभ में श्रीमती कनकलता प्रेमचंद गोयल, श्रीमती कृष्णा विजय गोयल, श्रीमती अंजलि श्याम अग्रवाल मोमबत्ती एवं श्रीमती शुचिता आशीष अग्रवाल, दीपचंद गर्ग आदि ने व्यासपीठ का पूजन किया।
भगवान की सेवा चाहे स्वार्थ से करें या परमार्थ से, भगवान उसे स्वीकार कर लेते हैं। भगवान आपका स्वार्थ नहीं, भक्ति देखते हैं। पूतना को भी भगवान ने तार दिया, क्योंकि वह भले ही राक्षस रही हो और कुभाव से आई हो, लेकिन उसने कृष्ण को दुग्ध पान कराने का भाव रखा इसलिए भगवान ने उसे भी मोक्ष प्रदान किया। नानीबाई के मायरे की कथा सबसे पहले मीराबाई ने लिखी। नृसिंह ने अपने जीवन में बाल्यकाल से ही संघर्ष देखा। वे बचपन से ही मूक-बधिर थे। भगवान ने उनकी भक्ति के वशीभूत होकर ही अपनी लीला दिखाई।