ज्ञान पुरुषार्थ से नहीं, श्रद्धा से मिलेगा – दीदी मां
इंदौर, । गीता योग है तो रामचरित मानस प्रयोग है। किताबी ज्ञान और शिक्षा और गुरू के सानिध्य में प्राप्त ज्ञान में अंतर है। शास्त्र सम्मत बातों को अपने जीवन में उतारेंगे तो हृदय में विराजित भगवान जागृत हो जाएंगे। जैसे पत्थर को शिल्पकार अपनी छैनी-हथौड़ी से सुंदर प्रतिमा में बदलते है, वैसे ही गुरू भी उस कुम्हार की तरह हैं जो हमें ज्ञान को संग्रहित करने की परिपक्वता और पात्रता प्रदान करते हैं। ज्ञान पुरुषार्थ से नहीं, श्रद्धा से प्राप्त होगा। जब तक परिपक्वता नहीं आएगी, ज्ञान रूपी अमृत हमारे पास नहीं टिक सकता।
प्रख्यात राम कथाकार दीदी मां मंदाकिनी श्रीराम किंकर को जो उन्होंने आज संगम नगर स्थित श्रीराम मंदिर पर श्रीराम शिवशक्ति मंदिर शैक्षणिक एवं पारमार्थिक समिति के तत्वावधान में चल रही रामकथा में शिव महिमा की व्याख्या के दौरान व्यक्त किए। प्रारंभ में आचार्य पं. कल्याणदत्त शास्त्री, आचार्य पं. रामचंद्र शर्मा वैदिक, समाजसेवी गोपालदास मित्तल, व्यासपीठ का पूजन किया।
दीदी मां ने कहा कि संसार में अधिकांश व्यक्ति स्वयं को बहुत बुद्धिमान मानते हैं। यह सोच ही उसे अहंकारी बना देता है, लेकिन यदि वह यह स्वीकार ले कि मैं बहुत कुछ नहीं जानता हूं तो उसका अभिमान गलित हो जाएगा। संसार में सर्वश्रेष्ठ और सर्वोपरि ईश्वर ही है, लेकिन यदि वह श्रद्धा और विश्वास के साथ ज्ञान, भक्ति और कर्म मार्ग पर चले तो उसके सभी संशय दूर हो सकते हैं। बुद्धि की विकृति के कारण रावण हो या अवतारी परशुराम, असीम ब्रह्म को समझने का अपना सामर्थ्य खो बैठते हैं। श्रद्घा का केन्द्र हमारी बुद्धि है, लेकिन विश्वास का सृजन हमारे हृदय में होता है। श्रद्धा बहुत कठिनाई से सृजित होती है। सती बुद्धि की प्रतीक है। यही सती अगले जन्म में पार्वती बनती है। बुद्धि के माध्यम से ही हम संसार का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। मुश्किल यह है कि आज हर कोई स्वयं को बहुत बड़ा बुद्धिमान या जानकार मानता है, लेकिन यह नहीं मानता कि वह बहुत कुछ नहीं जानता है। ऐसे व्यक्ति के मन में अहंकार का सृजन हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदास की दृष्टि जब भी शंकर पार्वती के दर्शन करती है तब उन्हें लगता है कि श्रद्धा और विश्वास ने मूर्त रूप धारण कर लिया है। तुलसी ने राम और सीता को नहीं, शंकर और पार्वती को प्राथमिकता दी है, क्योंकि उनकी कृपा के बिना सीता और राम के दर्शन संभव नहीं है। श्रद्धा और विश्वास जैसे शब्दों का प्रयोग हम बहुत सहजता और आसानी से कर लेते हैं, लेकिन इन दोनों शब्दों का दार्शनिक भाव बहुत गहरा है।