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जन्मभूमि इंदौर में, दीक्षा चित्तौड़ में और अब तीसवां चातुर्मास इंदौर में, ऐसे हैं जगदगुरू स्वामी रामदयाल

मात्र 37 वर्ष की आयु में रामस्नेही संप्रदाय के आचार्य जैसे सर्वोच्च पद पर विराजित हुए

इंदौर से विनोद गोयल की रिपोर्ट:-

– छत्रीबाग रामद्वारा में होगा कल से चातुर्मास

इंदौर।  अंतर्राष्ट्रीय रामस्नेही संप्रदाय के आचार्य, जगदगुरू स्वामी रामदयाल महाराज के बारे में बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि उनका जन्म 67 वर्ष पूर्व बियाबानी स्थित प्रेमकुमारी देवी हास्पिटल में हुआ है। वे उस समय अपने परिवार के साथ मालगंज चौराहे पर रहते थे और गोराकुंड रामद्वारा आते-जाते उन्हें संत सन्मुख राम महाराज का सानिध्य मिला, फलस्वरूप उन्हें परिवार से वैराग्य होने लगा और अंततः चित्तौड़ में भगतराम महाराज ने उन्हें उत्तम शिष्य मानकर दीक्षा प्रदान की। यह महाशिवरात्रि का दिन था। बचपन में उनका नाम राधेश्याम था, लेकिन दीक्षा के बाद उन्हें रामदयाल नाम मिला। दीक्षा लेने के बाद मात्र 37 वर्ष की आयु में वे अंतर्राष्ट्रीय रामस्नेही संप्रदाय के आचार्य पद को सुशोभित करने लगे। इतनी कम उम्र में आचार्य पद प्राप्त करना अपने आप में उनकी प्रतिभा का ही परिचायक है।

            छत्रीबाग रामद्वारा से जुड़ी हेमलता सोनी ने बताया कि स्वामी रामदयाल महाराज रामस्नेही संप्रदाय के 15वें आचार्य हैं। वे रविवार 25 जून से छत्रीबाग रामद्वारा पर चातुर्मास के लिए पधारेंगे। यह उनका 30वां चातुर्मास होगा। वे मूलतः इंदौर के ही है और उनका परिवार मालगंज चौराहे से कुछ दिनों बाद ही मल्हारगंज थाने के पास आकर रहने लगा। वे अपने परिवार के चौथे पुत्र रत्न हैं। उनके जन्म से समय वर्षा ऋतु का अंतिम चरण था और पृथ्वी हरी-भरी बनी हुई थी। पिता भवानी शंकर और मां राजकुंवर की कोख से जन्म लेने वाले स्वामी रामदयाल महाराज के जन्म के समय खूब खुशियों का वातावरण था। हर घर में खीर-पूड़ी और भजिए बन रहे थे। बचपन में उनका नाम राधेश्याम था और परिवार चूंकि गोराकुंड रामद्वारा से जुड़ा हुआ था इसलिए वे भी वहां  आ जाने लगे। वहीं से आपने सन्मुख रामजी महाराज के सानिध्य में भक्ति ज्ञान प्राप्त किया और स्वामी रामकिशोर महाराज की पधरावणी के दौरान मल्हारगंज में उनके परिवार ने भी राम किशोर महाराज की पधरावणी की, तब इस बालक के मन में भी विचार आया कि मैं भी इतना बड़ा संत बनूं और मुझे भी छत्र-चंवर का सम्मान मिले। बस, उन्होंने सन्मुखराम महाराज से अपने मन की बात कही और माता-पिता से जिद करके वे पंचकुइया श्मशान घाट पर बैठकर अपनी साधना और भजन करने लगे। कोई अर्थी आती तो पाइप के पीछे छिप जाते थे। आपके मामा मेहताजी भी रामद्वारा आते-जाते थे। एक बार संत भगतराम महाराज का चातुर्मास छत्रीबाग रामद्वारे में हुआ तब राधेश्याम भी वहां जाने लगे। 17 वर्ष की उम्र हुई तो वे अपनी मौसी के यहां मंदसौर चले गए। वहां से चित्तौड़गढ़ पहुंचे और भगतराम महाराज के सानिध्य में महाशिवरात्रि के दिन उनकी दीक्षा हो गई। दीक्षा के बाद उनका नाम रामदयाल रखा गया। दीक्षा लेने के बाद उन्होंने वाणीजी ग्रंथ का खूब तन्मयता से अध्ययन किया। अन्य ग्रंथ भी खूब पढ़े और अंततः 37 वर्ष की आयु में वे रामस्नेही संप्रदाय के 15वें आचार्य बनकर आज भी इस गरिमापूर्ण सर्वोच्च पद को सुशोभित एवं अलंकृत कर रहे हैं। उनकी दीक्षा को 30 वर्ष होने आए हैं और इस दौरान देश-विदेश में उन्होंने रामस्नेही संप्रदाय के नाम को नए आयाम प्रदान किए हैं।

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